भूँख: "एक निवाला, बस एक निवाला देखे हुए कितने दिन गुजर गए पता नही चला"
Contributor: Pravin Wankhede
Pravin wrote this heart-rending poem while reflecting upon a food simulation activity in Gramya Manthan 2018, the activity was designed to showcase the disparity and uneven division of resources in the world.
#भूँख
पता नही पर अब आतो की आवाजें भी आनी बंद हो गई है,
शायद पेट को भी आदत पड़ गई है हमारे जैसी खाली खाली रात में खाली खाली सोने की।
खेतों में पसीना बहता महसूस किया है हमने हर रोज,
पर अब गहरी चोट भी लग जाए तो खून बाहर नही आता।
शायद सिर्फ पानी बचा है अंदर,
और वो भी आँसूओ के साथ बह जाता है।
एक निवाला, बस एक निवाला देखे हुए कितने दिन गुजर गए पता नही चला,
और आँकड़े गिनती रही सरकारें की कितने भूँख से गुजर गए?
साहब जी,
आजकल तो लाशें भी सबसिडी में तोली जाती है,
उन्ही की जो उपजाकर खिला रहे है।
जो नाकाम है उन्हें तो समशान भी नसीब नही होता।
बस उनके नंगे बदन पर असूया की रेखाएं चितारी जाती है।
और क्या आपको पता है,
की भूँख की हर एक चींख में झूठ छिपा रहता है?
अगर ये भी झूठ लगे तो देखलो जरा आसपास,
माँ अपने भूंखे पेट बच्चे को कैसे सुलाती है।
बहन हिस्से का निवाला देकर कैसे काम चलती है।
बाप एक शुन्य मे देखता कैसे हँसता रहता है
और भाई कैसे विश्वास की बांते कह कर सम्भलता है।
एक और सच कहूँ?
हमे ना किसी से जीतना है,
ना किसी से हारना है।
बस एक बार,
भरे पेट शांती से मरना है।
Pravin wrote this heart-rending poem while reflecting upon a food simulation activity in Gramya Manthan 2018, the activity was designed to showcase the disparity and uneven division of resources in the world.
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