हां, हमें कुछ अलग करना है


सामने राजघाट और आसपास हरियाली के बीच ज्यादा अंग्रेजी, कम हिन्दी और थोड़ी बहुत मलयालम, तमिल, तेलगू बोलती तरुणाई। मौका था युवाओं की संस्था यूथ एलायंस के आयोजन चेंज फेस्टिवल का। पूरे देश से जुटे ये सौ विद्यार्थी सच में कुछ अलग, बहुत अलग करना चाहते हैं। उनके मन में जिजीविषा के साथ जिज्ञासा हिलोरें ले रही है। इसीलिए तो महज दो दिन में दस ऐसे प्रकल्प सामने आये कि उद्यमिता की बड़ी-बड़ी बातें करने वाले लोग भी दातों दले अंगुलियां दबा लें।
शनिवार की शाम जब ये सब विदा हो रहे थे, तो इनके साथ बीते दो दिनों की स्मृतियां ही नहीं, भविष्य के सपने भी थे। वे अपने साथ उद्यमिता का एक सपना लेकर तो जा ही रहे थे, अगले एक माह में कुछ अलग कर दिखाने की परिकल्पना भी मूर्त रूप में उनके साथ थी। वे एक अनूठे प्रयोग का हिस्सा बनकर जा रहे थे, जिसमें किसी ने हमारे लिए किया, हम तुम्हारे लिए करेंगे, तुम आगे किसी और के लिए करना। दो दिन तक सौ लोगों का यह उत्सव और कोई शुल्क नहीं! यह चौंकाने वाला हो सकता है, पर ऐसा हुआ। उपहार की अर्थव्यवस्था का एक अनूठा प्रयोग देखने को मिला। आप दो दिन रहिए, मंजिल के संस्थापक रवि गुलाटी, गांधी फेलोशिप के विवेक शर्मा और गूंज के अंशू गुप्ता जैसे कई दिग्गजों से सीधे संवाद कीजिए, अपनी समस्याओं के समाधान से लेकर भविष्य की परिकल्पनाओं तक से सीधे जुड़िये और फिर चले जाइये। बदले में आपसे चाहिए बस उपकार का भाव और कुछ अलग करने की बलवती इच्छाशक्ति। ये सब एक दूसरे के मित्र बन चुके थे और सखा भाव शायद किसी का मोहताज भी नहीं था। भाषाएं बाधा नहीं थी, विकलांगता आड़े नहीं आ रही थी और सच कहा जाए तो तरुणाई की मस्ती के साथ सब कुछ सीख लेने का जज्बा पल-पल हिलोरें भर रहा था।

आज इन्हें विदा करते हुए तमाम वे चेहरे भी खिले हुए थे, जो कई रातों से सोए नहीं थे। यूथ एलायंस की पूरी टीम के सामने इस अनूठे आयोजन की सफलता की चुनौती जो थी। इस चुनौती से पार पाने के साथ ही वे उत्साहित थे, झूम रहे थे और बीच-बीच में नाच-गा भी रहे थे। इन सबकी आंखों के सपने भी अब कुछ और बड़े हो गये थे, आखिर सपने देखने के लिए दो सौ आंखें और जो बढ़ गयी थीं। यही कारण है कि दो दिन पहले जब लोगों के आने का सिलसिला शुरू हुआ, तबसे लेकर विदाई की बेला तक हर कोई बस एक पांव पर खड़ा रहा और चेहरे पर शिकन तक न थी। इन दो दिनों में दस नयी परिकल्पनाओं को रेखाचित्र का रूप दिया गया, कुछ टीमें बनीं कुछ वोटिंग जैसी भी हुई और इन सबसे इतर अब इन परिकल्पनाओं को मूर्त रूप देने की चुनौती भी दी गयी। ये परिकल्पनाएं प्रकल्पों में बदलें, इस संकल्प के लिए ही तो वे सारे मार्गदर्शक जुटे थे, जो इन समूहों के साथ 24 घंटे से अधिक जूझे… और काफी कुछ सफल भी हुए। यही कारण भी रहा कि इन दो दिनों में देश भर से जुटी इस तरुणाई व युवा पीढ़ी से जो भी जुड़ा, सिखाने के साथ सीखता नजर आया। सबने कहा, हां हम बदलने निकले हैं, खुद बदलेंगे, देश को बदलेंगे और करेंगे कुछ अलग, सबसे अलग।

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