नेत्र परीक्षण शिविर का अनुभव
योगदानकर्ता: प्रियंका, अभिषेक
प्रतिफल: ग्राम्य मंथन
प्रतिफल: ग्राम्य मंथन
परिचय :
प्रत्येक वर्ष ग्राम्या मंथन के दौरान और उसके बाद भी एक बार नेत्र-परीक्षण शिविर होता रहा है। इस शिविर में गांव के अधिकतम लोगो के आँखों की जाँच करने की कोशिश की जाती है. और उनमें से किसी भी व्यक्ति के आंखों में मोतियाबिंद निकलता हैं तो ऑपरेशन कैंप आयोजित करके उसका ऑपरेशन किया जाता रहा है। इस शिविर का आयोजन डॉ अवध दुबे के सौजन्य से होता रहा है।
आउटरीच : व्यक्तिगत तौर पर यह आयोजन मेरे लिए भी और गाँव के लोगो के लिए भी काफ़ी खास होता हैं। गाँव के लोगो को प्रायः इंतजार रहता है कि जून में आंखों की जाँच होगी और जनवरी और मार्च के बीच में ऑपरेशन। इस बार भी यही इंतज़ार था। लोगो मुझे राह चलते हुए एक न एक बार पूछ लेते थे कि बिटिया आँखों का ऑपरेशन कब होगा? इस बार जैसे ही समय तय हुआ कि अब इस दिन नेत्र-परीक्षण शिविर आयोजित होगी तो मैं लोगो के घर जाकर उन लोगों को बता आयी। दूसरी महत्वपूर्ण चीज यह हुई कि पिछली बार जिन लोगो का ऑपरेशन हुआ था वो लोगो ख़ुद लोगो को बताने में जुट गए। इस बात से मैं बहुत खुश हुई कि धीरे धीरे विश्वास का रिश्ता बनता जा रहा है हमारे बीच। बहरहाल इस बार काफ़ी सुनियोजित तरीके से आउटरीच हुआ।
व्यक्तिगत तौर पर इस बार का अनुभव कमाल का रहा है। जो सबसे महत्वपूर्ण बात रही है मेरे लिए इस बार वो है,छोटी टीम में काम करना। अगर मैं शुरुआत की बात करूँ तो ऐसा लगा ही नही की कोई चीज नही संभल पाएगा सबकुछ समय से होता चला गया। जिस दिन गाँव मे शिविर लगने वाली थी वह दिन तो हमसब के लिए एक उपलब्धि जैसा है जिसे भुला नही जा सकता। अभिषेक का कमिटमेंट देखकर तो विश्वास और गहरा गया ख़ुद के ऊपर , मैं बहुत अचरज और कृतज्ञता से भरी थी जब अभिषेक बाइक से गाँव पहुँच गया अपना समय देने के लिए। और आयुष भी अंतिम समय में अपनी ऊर्जा के साथ हाज़िर हो गया। पिछले साल के अपेक्षा इस बार मैं ख़ुद में बहुत बदलाव देख रही थीं चीज़ो को लीड करते हुए । किसी भी वक़्त मुझे यह महसूस नही हुआ कि हमारे पास समय की कमी है और चीजें बेहतर नही हो रही हैं। हम सब लोग एक दिन पहले से बरातशाला की सफ़ाई से लेकर लोगो को अंतिम बार बताने के लिए लगे हुए थे। यह सब करते हुए चेहरा पर और मुश्कान बढ़ता ही चला जा रहा था। हा कभी कभी मेरे मन मे थोड़ा सा डर जरूर पैदा होता था कि लोग आएंगे या नही भी। पर हम इसे भी परिस्थिति पर छोड़ दिए थे कि जो होगा देखा जाएगा। अपने तरफ से बेहतर करते हैं। ख़ैर अगले दिन हम सभी लोग का खाना बनाकर बरातशाला में समय से पहले पहुँच चुकी थी। इस बार मैंने यह तय किया था नेत्र जाँच कैम्प का आयोजन कम से कम संसाधन में करूँगी,ख़ासकर बाज़ार से कुछ नही मंगाया जाएगा । इसीलिए हमने चाय से लेकर दोपहर के खाना हमने ख़ुद बनाया। इसीतरह से कम संसाधन वाला मेरा यह आईडिया काम कर गया। जैसे ही बरातशाला पहुँची हमारी मुलाकात प्रधान जी से हो गयी वो भी काफ़ी खुश हुए की आंखों की जांच का आयोजन होने वाला है। इस समय मुझे ही गौरव महसूस हुआ खासकर उन सबके लिए जो अपना सामान हमे दे रहे थे बरातशाला को व्यवस्थित करने के लिए। वो तमाम चीज जिसकी हमे जरूरत थी। जैसे ही सबकुछ व्यवस्थित हुआ लोगो का आने का सिलसिला शुरू हो गया और लोगो को देखकर हमसब फुले नही समा रहे थे। जब डॉ आशुतोष जी अपने टीम के साथ पहुँचे तो वहां आये लोग भी बेहद खुश हो गए कि अब चेकअप होगा। और थोड़ा सा रेस्ट के बाद चेकअप की शुरुआत हो गयी। एक चीज़ मुझे यहां नज़र आई कि लोग और डॉ के बीच भी काफी प्रेमभाव है जिसके वजह से लोग घबरा नही रहे है, अपनी बात बेफिक्र होकर रख रहे हैं। और खासकर लोगो को लग रहा थी कि उनकी बेटी साथ हैं तो उन्हें कुछ नही होगा। ऐसे ही चेकअप कि सिलसिला चलता रहा है लगभग तीन घण्टा तक। यूँ ही यह यात्रा चलती रही जब तक ऑपरेशन नही हो गया। ख़ैर इस बार आलोक की उपस्थिति मुझे और हौसला दे रही थी,लोगो को संभालने में और साथ में आयुष की तत्परता जो काबिले ए तारीफ़ की बात है।
गाँव में लोगों को फाइनली तैयार ऑपरेशन के लिए रवाना हो गए। रास्ते में सब लोग मज़े में बात करते हुए चल रहे थे। जैसे ही हॉस्पिटल पहुँची थी तो वहां के दीदियों के द्वारा खूबसूरत स्वागत हुआ हम सबका। ऐसा लगा ही नही की हमलोग हॉस्पिटल आये हुए हैं, लगा कि घर में आई हूँ। खानेपीने का ख़याल जिस तरीके से राधा दिदी रख रही थी,साथ में उनका प्यार और स्नेह हम सबको मिल रहा था। वहाँ दो दिन ऐसे बिता जैसे एक पल बित जाता है। हॉस्पिटल में भी अपना घर बन गया साथ में खाना बनाना औऱ सभी लोग एक साथ बैठकर भोजन करना। सारे मरीज को भी एक पल के लिए भी नही लगा कि हम घर से दूर है। साथ साथ हम सब इधर उधर घूम कर मौज़ भी कर रहे थे।
व्यक्तिगत रूप से मैं अपने भीतर एक उभरते हुए लीडर को देख रही थीं। जो शांत है औऱ अपने आसपास के लोगो का ख्याल रख पा रही है। हर जरूरत को मिलकर पूरा कर रही। थोड़ा भी घबरा नही रही हैं। इस बार शिविर आयोजन करते हुए यह एहसास हुआ कि भले छोटे छोटे चीज से ही बड़ा बदलाव सम्भव है न कि रेडिकल बदलाव से। अब यह सोच पा रही हूं किसी न किसी रूप में अपने कदम को बढ़ाना जरूरी है। ऑपरेशन हो जाने के बाद लोगो का जो प्यार मिल रहा है वह काफी सुकून देता है मुझे । खासकर जब वह कहते हैं कि बिटिया मुझे सब साफ साफ दिख रहा है तो ऐसा लगता है उन्हें नया जीवन मिल गया है। अब तो लगता है कि यही लोग मेरी सबसे बड़ी ताक़त है। जो मेरे लिए सबसे बड़ी खुशी हैं।
डॉ अवध दुबे जी के तरफ से हमलोगों को जो स्पेस मिलता है बार बार शिविर लगाने की वह काफ़ी महत्वपूर्ण स्थान रखता है हम सबके लिए। और उनका जो विश्वास है हमपर ,उनके प्रति मेरे मन बहुत सारा कृतज्ञता भी प्रकट कर पाऊं तो भी कम होगा।
निष्कर्ष :
[उपरोक्त डेटा के आधार पर कई विचार सामने आते है, जो इस प्रकार है]
इस बार कैम्प में 50 लोगों की उपस्थिति रही जो पिछले साल के मुकाबले 20 अधिक था। इस बार हम कुछ ज्यादा लोगों को सेवा दे सकें। आपरेशन के लिए 18 लोगों को कहा गया था लेकिन फाइनली 8 लोग ही जा सकें। इतना गैप सचमुच चिंताजनक है। इससे समझ में आता है कि अगली बार से बेहतर आउटरीच और जागरूकता संवाद की ज़रूरत है। पिछले साल और इस साल में थोड़ा बदलाव यह हुआ कि इस बार मैं मरीज़ को उनके साथ समय बिता कर बहुत मोटिवेट किया जाने के लिये। पर पिछले साल के अपेक्षा एक अधिक वृद्धि ही कर पाई।
मुझे लगता है ऑपरेशन के लिए लोगो मे कमी इसलिए आ जाती है कि उनके भीतर बहुत सारा डर बैठा होता है और कुछ पारिवारिक स्थिति होती हैं। जैसे शादी में या किसी अपने रिश्तेदार के यहां जाना है। खासकर डर होता है दूर जाना होगा ,उल्टी होने का और तो और रहने ,खाने पीने का। कुछ ऑपरेशन न कराने के बहाने भी होते है जो लोगो के हिसाब से सही होता है। इस बार की जो सीखने योग्य बात यह रही हैं कि लोगो के भीतर ज्यादा से ज्यादा जागरूकता फैलायी जाए उनके हेल्थ को लेकर। और उन्हें हॉस्पिटल चलने के लिए प्यार से ,इत्मीनान से बात किया जाना चाहिए। जो हुआ भी एक स्तर पर । फिर भी अगले बार से मैं चाहूँगी की मरीज़ के साथ आत्मीयता वाली रिश्ता बने और विश्वास कायम हो एक दूसरे प्रति।
प्रत्येक वर्ष ग्राम्या मंथन के दौरान और उसके बाद भी एक बार नेत्र-परीक्षण शिविर होता रहा है। इस शिविर में गांव के अधिकतम लोगो के आँखों की जाँच करने की कोशिश की जाती है. और उनमें से किसी भी व्यक्ति के आंखों में मोतियाबिंद निकलता हैं तो ऑपरेशन कैंप आयोजित करके उसका ऑपरेशन किया जाता रहा है। इस शिविर का आयोजन डॉ अवध दुबे के सौजन्य से होता रहा है।
आउटरीच : व्यक्तिगत तौर पर यह आयोजन मेरे लिए भी और गाँव के लोगो के लिए भी काफ़ी खास होता हैं। गाँव के लोगो को प्रायः इंतजार रहता है कि जून में आंखों की जाँच होगी और जनवरी और मार्च के बीच में ऑपरेशन। इस बार भी यही इंतज़ार था। लोगो मुझे राह चलते हुए एक न एक बार पूछ लेते थे कि बिटिया आँखों का ऑपरेशन कब होगा? इस बार जैसे ही समय तय हुआ कि अब इस दिन नेत्र-परीक्षण शिविर आयोजित होगी तो मैं लोगो के घर जाकर उन लोगों को बता आयी। दूसरी महत्वपूर्ण चीज यह हुई कि पिछली बार जिन लोगो का ऑपरेशन हुआ था वो लोगो ख़ुद लोगो को बताने में जुट गए। इस बात से मैं बहुत खुश हुई कि धीरे धीरे विश्वास का रिश्ता बनता जा रहा है हमारे बीच। बहरहाल इस बार काफ़ी सुनियोजित तरीके से आउटरीच हुआ।
व्यक्तिगत तौर पर इस बार का अनुभव कमाल का रहा है। जो सबसे महत्वपूर्ण बात रही है मेरे लिए इस बार वो है,छोटी टीम में काम करना। अगर मैं शुरुआत की बात करूँ तो ऐसा लगा ही नही की कोई चीज नही संभल पाएगा सबकुछ समय से होता चला गया। जिस दिन गाँव मे शिविर लगने वाली थी वह दिन तो हमसब के लिए एक उपलब्धि जैसा है जिसे भुला नही जा सकता। अभिषेक का कमिटमेंट देखकर तो विश्वास और गहरा गया ख़ुद के ऊपर , मैं बहुत अचरज और कृतज्ञता से भरी थी जब अभिषेक बाइक से गाँव पहुँच गया अपना समय देने के लिए। और आयुष भी अंतिम समय में अपनी ऊर्जा के साथ हाज़िर हो गया। पिछले साल के अपेक्षा इस बार मैं ख़ुद में बहुत बदलाव देख रही थीं चीज़ो को लीड करते हुए । किसी भी वक़्त मुझे यह महसूस नही हुआ कि हमारे पास समय की कमी है और चीजें बेहतर नही हो रही हैं। हम सब लोग एक दिन पहले से बरातशाला की सफ़ाई से लेकर लोगो को अंतिम बार बताने के लिए लगे हुए थे। यह सब करते हुए चेहरा पर और मुश्कान बढ़ता ही चला जा रहा था। हा कभी कभी मेरे मन मे थोड़ा सा डर जरूर पैदा होता था कि लोग आएंगे या नही भी। पर हम इसे भी परिस्थिति पर छोड़ दिए थे कि जो होगा देखा जाएगा। अपने तरफ से बेहतर करते हैं। ख़ैर अगले दिन हम सभी लोग का खाना बनाकर बरातशाला में समय से पहले पहुँच चुकी थी। इस बार मैंने यह तय किया था नेत्र जाँच कैम्प का आयोजन कम से कम संसाधन में करूँगी,ख़ासकर बाज़ार से कुछ नही मंगाया जाएगा । इसीलिए हमने चाय से लेकर दोपहर के खाना हमने ख़ुद बनाया। इसीतरह से कम संसाधन वाला मेरा यह आईडिया काम कर गया। जैसे ही बरातशाला पहुँची हमारी मुलाकात प्रधान जी से हो गयी वो भी काफ़ी खुश हुए की आंखों की जांच का आयोजन होने वाला है। इस समय मुझे ही गौरव महसूस हुआ खासकर उन सबके लिए जो अपना सामान हमे दे रहे थे बरातशाला को व्यवस्थित करने के लिए। वो तमाम चीज जिसकी हमे जरूरत थी। जैसे ही सबकुछ व्यवस्थित हुआ लोगो का आने का सिलसिला शुरू हो गया और लोगो को देखकर हमसब फुले नही समा रहे थे। जब डॉ आशुतोष जी अपने टीम के साथ पहुँचे तो वहां आये लोग भी बेहद खुश हो गए कि अब चेकअप होगा। और थोड़ा सा रेस्ट के बाद चेकअप की शुरुआत हो गयी। एक चीज़ मुझे यहां नज़र आई कि लोग और डॉ के बीच भी काफी प्रेमभाव है जिसके वजह से लोग घबरा नही रहे है, अपनी बात बेफिक्र होकर रख रहे हैं। और खासकर लोगो को लग रहा थी कि उनकी बेटी साथ हैं तो उन्हें कुछ नही होगा। ऐसे ही चेकअप कि सिलसिला चलता रहा है लगभग तीन घण्टा तक। यूँ ही यह यात्रा चलती रही जब तक ऑपरेशन नही हो गया। ख़ैर इस बार आलोक की उपस्थिति मुझे और हौसला दे रही थी,लोगो को संभालने में और साथ में आयुष की तत्परता जो काबिले ए तारीफ़ की बात है।
गाँव में लोगों को फाइनली तैयार ऑपरेशन के लिए रवाना हो गए। रास्ते में सब लोग मज़े में बात करते हुए चल रहे थे। जैसे ही हॉस्पिटल पहुँची थी तो वहां के दीदियों के द्वारा खूबसूरत स्वागत हुआ हम सबका। ऐसा लगा ही नही की हमलोग हॉस्पिटल आये हुए हैं, लगा कि घर में आई हूँ। खानेपीने का ख़याल जिस तरीके से राधा दिदी रख रही थी,साथ में उनका प्यार और स्नेह हम सबको मिल रहा था। वहाँ दो दिन ऐसे बिता जैसे एक पल बित जाता है। हॉस्पिटल में भी अपना घर बन गया साथ में खाना बनाना औऱ सभी लोग एक साथ बैठकर भोजन करना। सारे मरीज को भी एक पल के लिए भी नही लगा कि हम घर से दूर है। साथ साथ हम सब इधर उधर घूम कर मौज़ भी कर रहे थे।
व्यक्तिगत रूप से मैं अपने भीतर एक उभरते हुए लीडर को देख रही थीं। जो शांत है औऱ अपने आसपास के लोगो का ख्याल रख पा रही है। हर जरूरत को मिलकर पूरा कर रही। थोड़ा भी घबरा नही रही हैं। इस बार शिविर आयोजन करते हुए यह एहसास हुआ कि भले छोटे छोटे चीज से ही बड़ा बदलाव सम्भव है न कि रेडिकल बदलाव से। अब यह सोच पा रही हूं किसी न किसी रूप में अपने कदम को बढ़ाना जरूरी है। ऑपरेशन हो जाने के बाद लोगो का जो प्यार मिल रहा है वह काफी सुकून देता है मुझे । खासकर जब वह कहते हैं कि बिटिया मुझे सब साफ साफ दिख रहा है तो ऐसा लगता है उन्हें नया जीवन मिल गया है। अब तो लगता है कि यही लोग मेरी सबसे बड़ी ताक़त है। जो मेरे लिए सबसे बड़ी खुशी हैं।
डॉ अवध दुबे जी के तरफ से हमलोगों को जो स्पेस मिलता है बार बार शिविर लगाने की वह काफ़ी महत्वपूर्ण स्थान रखता है हम सबके लिए। और उनका जो विश्वास है हमपर ,उनके प्रति मेरे मन बहुत सारा कृतज्ञता भी प्रकट कर पाऊं तो भी कम होगा।
निष्कर्ष :
[उपरोक्त डेटा के आधार पर कई विचार सामने आते है, जो इस प्रकार है]
इस बार कैम्प में 50 लोगों की उपस्थिति रही जो पिछले साल के मुकाबले 20 अधिक था। इस बार हम कुछ ज्यादा लोगों को सेवा दे सकें। आपरेशन के लिए 18 लोगों को कहा गया था लेकिन फाइनली 8 लोग ही जा सकें। इतना गैप सचमुच चिंताजनक है। इससे समझ में आता है कि अगली बार से बेहतर आउटरीच और जागरूकता संवाद की ज़रूरत है। पिछले साल और इस साल में थोड़ा बदलाव यह हुआ कि इस बार मैं मरीज़ को उनके साथ समय बिता कर बहुत मोटिवेट किया जाने के लिये। पर पिछले साल के अपेक्षा एक अधिक वृद्धि ही कर पाई।
मुझे लगता है ऑपरेशन के लिए लोगो मे कमी इसलिए आ जाती है कि उनके भीतर बहुत सारा डर बैठा होता है और कुछ पारिवारिक स्थिति होती हैं। जैसे शादी में या किसी अपने रिश्तेदार के यहां जाना है। खासकर डर होता है दूर जाना होगा ,उल्टी होने का और तो और रहने ,खाने पीने का। कुछ ऑपरेशन न कराने के बहाने भी होते है जो लोगो के हिसाब से सही होता है। इस बार की जो सीखने योग्य बात यह रही हैं कि लोगो के भीतर ज्यादा से ज्यादा जागरूकता फैलायी जाए उनके हेल्थ को लेकर। और उन्हें हॉस्पिटल चलने के लिए प्यार से ,इत्मीनान से बात किया जाना चाहिए। जो हुआ भी एक स्तर पर । फिर भी अगले बार से मैं चाहूँगी की मरीज़ के साथ आत्मीयता वाली रिश्ता बने और विश्वास कायम हो एक दूसरे प्रति।
मोतियाबिंद-ऑपरेशन का अनुभव :
शेयरिंग, समानुभूति और संवाद जैसे मूल्य जिसे युथ अलायंस में हम लगातार पोषित करते रहे है, ऑपरेशन शिविर के दौरान विभिन्न मौक़ों पर टीम को यह अवसर मिला कि इन मूल्यों का अभ्यास यहाँ भी किया जायें। शिविर के दौरान हम इन मूल्यों को बरतते हुए मरीज़ों से संवाद कर पायें और हॉस्पिटल स्टाफ से अपने संबंधों को विस्तार देते हुए उसे प्रगाढ़ कर पायें। एक शेयरिंग सर्किल के द्वारा स्वास्थ्य और पोषण पर बात करने के लिए हमने एक स्पेस का निर्माण किया। ग्रामीणों से इन विषयों पर इन मूल्यों का ध्यान में रखते हुए बात करना बहुत ही अच्छा अनुभव था। आमतौर पर हमेशा स्त्रियों के तरफ से बोलने और ताना मारने वाले पुरुष चुप थे और बाकियों को बोलने का अवसर दे पा रहे थे। हमारे लिए भी ये अनूठा अनुभव था जिसमें हम ग्रामीण पृष्ठभूमि के अनुसार ही अपने सुझावों को रख पा रहे थे। साथ ही साथ हम उपरोक्त मूल्यों का इस जनसमूह तक विस्तार कर पा रहे थे।
शेयरिंग, समानुभूति और संवाद जैसे मूल्य जिसे युथ अलायंस में हम लगातार पोषित करते रहे है, ऑपरेशन शिविर के दौरान विभिन्न मौक़ों पर टीम को यह अवसर मिला कि इन मूल्यों का अभ्यास यहाँ भी किया जायें। शिविर के दौरान हम इन मूल्यों को बरतते हुए मरीज़ों से संवाद कर पायें और हॉस्पिटल स्टाफ से अपने संबंधों को विस्तार देते हुए उसे प्रगाढ़ कर पायें। एक शेयरिंग सर्किल के द्वारा स्वास्थ्य और पोषण पर बात करने के लिए हमने एक स्पेस का निर्माण किया। ग्रामीणों से इन विषयों पर इन मूल्यों का ध्यान में रखते हुए बात करना बहुत ही अच्छा अनुभव था। आमतौर पर हमेशा स्त्रियों के तरफ से बोलने और ताना मारने वाले पुरुष चुप थे और बाकियों को बोलने का अवसर दे पा रहे थे। हमारे लिए भी ये अनूठा अनुभव था जिसमें हम ग्रामीण पृष्ठभूमि के अनुसार ही अपने सुझावों को रख पा रहे थे। साथ ही साथ हम उपरोक्त मूल्यों का इस जनसमूह तक विस्तार कर पा रहे थे।
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