Teri meri mitti ki yeh kahani..
Contributor: YA Team
In one of the sessions called Village Imagination, Ragini Lalit who was one of the participants last year sang this beautiful song that moved deep strings in each of our hearts. Through an amazing rhetoric, it brings out the paradoxical struggle between rural and urban, development and inherent joy of that which is called undeveloped, money and all that it can't buy. And the silence between the two.
Here are the lyrics of the song:
घरों से जब निकले तो खेत बिक चुके थे
पानी के सारे दाने रुक चुके थे
कुल्हाड़ी के निचे बाग़ झुक चुके थे
मेरी नीली नहर और मै चले दिल्ली
जहाँ बगिया थी सूखी और बोतल थी गीली
थोड़ी मिली थी तो मैंने भी पीली
नशा ऐसा आया जैसा आया
पैसा ही पैसा मानक बकाया
सुना ये तूफ़ान गुडगाँव बजी आया
जहाँ होता था आम और होता था जामुन
जहाँ होता था आम और होता था जामुन
घरों से जब निकले तो खेत बिक चुके थे
पानी के सारे दाने रुक चुके थे
कुल्हाड़ी के निचे बाग़ झुक चुके थे
पैसे के आगे हम सब बिक चुके थे
पैसे के आगे हम सब बिक चुके थे ||
May all being live in peace :)
In one of the sessions called Village Imagination, Ragini Lalit who was one of the participants last year sang this beautiful song that moved deep strings in each of our hearts. Through an amazing rhetoric, it brings out the paradoxical struggle between rural and urban, development and inherent joy of that which is called undeveloped, money and all that it can't buy. And the silence between the two.
It was written by a poet friend and first sung at a gathering in Gurgaon. At Gramya Manthan too, it was a perfect description of the struggle that a participant find emerging in her/him.
Ragini engaged with children in Tishti during the education camp. Children still remember her and she carries their innocence in her heart. In the times that followed, she worked as core team in Youth Alliance team and went on to join Teach For India, to pursue her sense of service for the children through education.
Here are the lyrics of the song:
घरों से जब निकले तो खेत बिक चुके थे
पानी के सारे दाने रुक चुके थे
कुल्हाड़ी के निचे बाग़ झुक चुके थे
मेरी नीली नहर और मै चले दिल्ली
जहाँ बगिया थी सूखी और बोतल थी गीली
थोड़ी मिली थी तो मैंने भी पीली
नशा ऐसा आया जैसा आया
पैसा ही पैसा मानक बकाया
सुना ये तूफ़ान गुडगाँव बजी आया
जहाँ होता था आम और होता था जामुन
जहाँ होता था आम और होता था जामुन
तोता होता था और होता था ब्राह्मण
परिंदो का कलरव, गुरूओं का राग
बाजरे की रोटी चोलाई का साग
माना हाईवे से बेहतर नहीं होती पगडण्डी -२
और जामुन की छाया है मॉल से ठंडी
फिर भी मालिक की तिजोरी थी पैसो की मंडी
सुन ले , सुन ले, सुन ले
सुन ले, गुडगाँव के राजा और रानी
ये है तेरी मेरी मिटटी की ये कहानी
तेरी आँखों से आएगा बूंदो का पानीघरों से जब निकले तो खेत बिक चुके थे
पानी के सारे दाने रुक चुके थे
कुल्हाड़ी के निचे बाग़ झुक चुके थे
पैसे के आगे हम सब बिक चुके थे
पैसे के आगे हम सब बिक चुके थे ||
May all being live in peace :)
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